भारत प्राचीन काल से वीरों और साहसी व्यक्तिओं की धरती रही इसमें जितना पुरुषो के साहस की बात करें उससे ज्यादा कहीं स्त्रियों के साहस की बात को भी नजरअंदाज नहीं किया जा सकता है। जी हाँ आज हम बात करेंगे एक ऐसी वीर और साहसी औरत या सैनिक का जिसका नाम था झांसी की रानी। इन्हे शादी के बाद झाँसी की रानी कहा जाता था और उसके पहले मनु के नाम से या मणिकर्णिका के नाम से भी जाना जाता था।
अपने पैतृक परिवार से ये मराठों से सबंध रखती थी। आईये "GK Pustak" में एक नज़र डालते हैं लक्ष्मी बाई की जीवनी, परिवार, शिक्षा, उनके द्वारा लड़ी गई झाँसी की लड़ाई, 1857 के विद्रोह के सहयोग पर और उनके मृत्यु के इतिहास पर।
रानी लक्ष्मीबाई का जीवन परिचय | जन्म | परिवार | शिक्षा | झाँसी की लड़ाई 1857 में योगदान | मृत्यु का इतिहास |
झांसी की रानी लक्ष्मीबाई का जीवन परिचय | Biography of Rani Laxmibai of Jhansi
- लक्ष्मीबाई का जन्म स्थान ---- भारत का वाराणसी शहर
- जन्म तारीख ---- 19 नवंबर 1828
- पिता का नाम ---- मोरोपंत तांबे
- माता का नाम ---- भागीरथी सप्रे
- पति का नाम ---- महाराज गंगाघर राव नेवलेकर
- शादी के समय उम्र ---- 14 वर्ष
- पुत्र का नाम ---- दमोदर राव तांबे
- गोद लिए पुत्र का नाम आनंद राव तांबे
- मृत्यु की तारीख ---- 18 जून 1858
- मृत्यु का कारण ---- अंग्रेजो के साथ युद्ध
- मृत्यु के समय उम्र ---- 29 साल, 6 महीने, 30 दिन
रानी लक्ष्मी बाई का जन्म, परिवार और शिक्षा | Birth, Family and Education of Rani Laxmi Bai
रानी लक्ष्मी बाई का जन्म 19 नवंबर 1828 में भारत के वाराणसी शहर में हुआ था। उनका परिवार एक ब्राह्मण परिवार था जिन्हे मराठी करहड़े के नाम से जाना जाता था। उनके पिता जी का नाम मोरोपंत तांबे था और मराठे के रूप में जाना जाता था। उनकी माता का नाम भागीरथी सप्रे या भागीरथी बाई था।
उनकी माता एक घरेलू स्त्री थी और धार्मिक विचारों वाली स्त्री थी। जब उसका जन्म हुआ तो उनके नामकरण पर उनकी माता और पिता ने उनका नाम मनु रखा। बाद में लक्ष्मीबाई को मणिकर्णिका तांबे के नाम से भी जाना गया। हम सभी जानते हैं मराठों का संबंध महाराष्ट्र से ज्यादातर होता है इसलिए उनके पिता जी भी महाराष्ट्र से आकर वाराणसी में बसे हुए थे।
उस वक्त ज्यादातर रियासतों का गढ़ माना जाता था इसलिए लक्ष्मीबाई की पिता जी बिठूर जिले के कल्याणप्रांत में एक सेनापति के रूप में काम करते थे। जिनके लिए उनके पिता जी काम करते थे उनका नाम वाजी राव दूसरा था। पेशवा वाजीराव उन्हें छबीली के नाम से पुकारा करते थे। उनकी शिक्षा दीक्षा घर पर ही हुई थी।
अगर उनकी शिक्षा की बात करें तो वो पढ़ाई को छोड़कर अन्य कामों में भी सक्षम थी जैसे तलवार चलाना, शूटिंग करना और घुड़सवारी करना उन्होंने बचपन में ही में सीख लिया था। बचपन से उनका संबंघ उन वीरों के साथ था जिन्होंने आजादी के लिए बहुत काम किये जैसे तात्या टोपे, नानासाहब आदि। लक्ष्मीबाई अपनी माता जी के साथ बहुत प्यार करती थी पर जब मात्र लक्ष्मीबाई 4 साल की थी तो उनकी माता जी का देहांत हो गया और उसके बाद लक्ष्मीबाई को पालने का सारा काम उनके पिता जी पर आ गया।
लक्ष्मी बाई की शादी | Laxmi bai wedding
रानी झाँसी का विवाह उस वक्त के मशहूर राज्य झाँसी के महाराज गंगाघर राव नेवलेकर के साथ हुआ था। उनकी शादी के बाद ही उन्हें झाँसी के नाम से जाना जाने लगा। जब मनु ने झाँसी के महाराज गंगाघर राव नेवलेकर के साथ शादी की तब वह मात्र 14 वर्ष की थी। उन दोनों ने झाँसी के गणेश मंदिर में शादी की थी। दोनों को 1851 में एक पुत्तर की प्राप्ति हुई जिसका नाम उनके पिता जी ने दमोदर राव रखा।
पर किस्मत ने उनका साथ नहीं दिया और दामोदर मात्र जब 4 महीने के थे तो उनका किसी कारण वश मौत हो गई। 1842 में दोनों ने शादी की थी, 1851 में पुत्र प्राप्ति के बाद मौत हो गई और वहां के लोगों का ऐसा माना जाता है कि इस सदमें से महाराज गंगाधर राव नेवलेकर उबर नहीं पाए और वे बीमार रहने लगे। इसके बाद दोनों ने अपना झाँसी राज्य का कोई न कोई उत्तराधिकारी चुनने के लिए एक पुत्र गोद लेने की सोची।
उन्होंने अपने भाई जो दूर के रिश्तेदार थे के बेटे को गोद लिया जिसका नाम आनंद राव था। पहले उसे इसी नाम के साथ जाना जता था पर बाद में रानी लक्ष्मी बाई ने इसका नाम अपने पहले बेटे जिसकी मौत हो चुकी थी के नाम से दामोदर राव रख दिया।
रानी लक्ष्मी का उत्तराधिकारी बनना और झाँसी का राजपाठ संभालना | To become the successor of Rani Lakshmi and to take over the throne of Jhansi
21 नवंबर 1853 में लक्ष्मी बाई के घर वाले महाराज गंगाधर राव नेवलेकर की मौत हो गई। उस वक्त ब्रिटिश सरकार ने कानून में बहुत फेर बदल किये हुए थे। एक तरफ लक्ष्मीबाई ने जो पुत्र गोद लिया हुआ था वह छोटा था और दूसरी तरफ झाँसी का सिंहासन सम्भालन जिस पर अब नजर ब्रिटिश शासन की पूरी नज़र थी पर लक्ष्मीबाई ने मात्र उस वक्त 18 साल में होते ह्यूए हौसला नहीं हारा।
उस वक्त भारत के गवर्नर जनरल लार्ड डलहौजी थे और ने पुरे भारत में "Policy of Laps" कानून नाम का प्रचलन किया हुआ था। इस ब्रिटिश नियम के अनुसार भारत के किसी भी रियासत के उत्तराधिकारी अगर मृत्यु हो जाती है तो उसकी अपनी संतान ही उसके साम्राज्य का उत्तराधिकारी बन सकता है। अर्थात गोद लिए पुत्र को शासन का उत्तराधिकारी नहीं माना जायेगा। हाँ इस कानून में एक बात जरूर कही गई थी कि सभी साम्राज्य ब्रिटिश में मिलाने के बाद उसकी पत्नी को ब्रिटिश खजाने से कुछ पेंशन दी जाएगी जिससे वह अपना गुजारा चला सके।
उसके बाद रानी लक्ष्मीबाई के सिहांसन पर ब्रिटिश जोर चलने लगा और ब्रिटिशर ने उन्हें महल खाली करने के लिए कह दिया और उसके बदले उन 60000 सालाना पेंशन की पेशकश रखी। पर वीर वीरांगना ने इस पेशकश को ठुकरा दिया। लक्ष्मीबाई ने ब्रिटिश को सीधे तौर पर कह दिया मैं किसी भी हालत में अपनी झाँसी नहीं छोडूंगी। अपने साम्राज्य को बचाने के लिए उन्होंने वहां के लोगों का साथ माँगा और उन्हें भरपूर साथ मिला भी। लक्ष्मी बाई ने अपनी सेना का निर्माण किया जिसमें महिलाओं को भी शामिल किया गया। 1400 सैनिक संख्या वाली सेना को झाँसी की रानी अपने आप सेना का परीक्षण देती थी।
1857 के विद्रोह में लक्ष्मीबाई का योगदान | Contribution of Laxmibai in the Revolt of 1857
पुरे भारत में 1857 में एक विद्रोह छिड़ चूका था जिसे भारत की आजादी की पहली लड़ाई का नाम दिया गया था और ये मेरठ से शुरू हुआ था। ये खबर लक्ष्मीबाई तक पहुंच चुकी थी और रानी ने इसका समर्थन किया और अपने महल में महिलाओं को बुलाकर एक आयोजन किया जिसमें उन्होंने ब्रिटिशर को डरपोक कहा और कायर की उपाधि दी।
रानी ने महिलाओं को न डरने के लिए कहा। पहले लक्ष्मी बाई 1857 के विद्रोह में शामिल होने की इच्छुक नहीं थी पर बाद में जब अंग्रेजो ने उन्हें आश्वासन दिया कि वे झाँसी को कोई भी नुकसान नहीं पहुचायेंगे उसके बाद विश्वासघात किया तो रानी इस विद्रोह में शामिल हो गई।
इस दौरान झाँसी में एक नरसंहार भी हुआ उसके कुछ दिन बाद झाँसी के सैनिक उन्हें छोड़ कर भाग गए। ब्रिटिशर ने झाँसी की रानी को महल छोड़ने के लिए भी कहा। 1857 के विद्रोह में झाँसी की रानी ने बढ़ चढ़ कर हिस्सा लिया।
झाँसी की लड़ाई | Battle of Jhansi in Hindi
1857 के विद्रोह के दौरान झाँसी के दो पड़ोसी थे जिन्होंने झाँसी पर हमला कर दिया और अपने कब्जे में लेने की कोशिश की। ये युद्ध रानी लक्ष्मीबाई और दो पड़ोसियों ओरछा और दतिया के राजाओ के बीच हुआ था। इसका फायदा अंग्रेजी सरकार को मिला और अंग्रेजों ने 1858 में झाँसी पर हमला कर दिया। एक तरफ से अंग्रेजी सेना का नेतृत्व अंग्रेजों के सर ह्यू रोज कर रहे थे तो दूसरी ओर झाँसी की सेना का नेतृत्व तांत्या टोपे कर रहे थे। तांत्या टोपे के पास 20000 सैनिकों की एक टुकड़ी थी और दूसरी तरफ अंग्रेजों के पास सेना और तोपों का झखीरा था। ये लड़ाई दोनों ही पक्ष की और से लगभग 14 दिन तक चली।
अंग्रेजी सेना ने महल के मजबूत दीवारों को तोड़ दिया और उसके बाद उस नगर पर कब्ज़ा कर लिया। इस शहर पर कब्ज़ा करने के बाद अंग्रेजों ने इस शहर में लूट पाट करने की कोशिश की। पर लक्ष्मीबाई के अंदर साहस की कमी नहीं थी इसलिए उसने अपने बेटे को अपनी पीठ पर बांध कर उनका मुकाबला किया। भारी लूट पाट और अंग्रेजों के कब्जे के वावजूद लक्ष्मी बाई अपने बेटे को अंग्रेजों से बचाने में कामयाब हुई।
ये लड़ाई जो हारने के बाद झाँसी की रानी ने अपना होंसला नहीं हारा और वहां से दूर कालपी नामक जगह पर पहुंच गई और वहां जाकर तांत्या टोपे के साथ अगली रणनीति तैयार की। अपनी सेना को फिर से सशक्त किया और अगली रणनीति में जुट गई। अंग्रेज पीछे हटने वाले नहीं थे उन्होंने सर ह्यू रोज के नेतृत्व में 22 मई 1858 को उस जगह पर हमला कर दिया पर तांत्या टोपे की एकजुटता और लक्ष्मीबाई के साहस ने उसे पीछे हटने के लिए मजबूर कर दिया।
कुछ दिनों बाद अंग्रेजों ने अपनी सेना शसक्त की और फिर से कालपी पर हमला कर दिया। इस लड़ाई में लक्ष्मीबाई खूब लड़ी पर अपनी वीरता का परिचय देती हुई लक्ष्मी बाई को इस युद्ध में हार का सामना करना पड़ा।
रानी लक्ष्मी बाई मृत्यु का इतिहास | History of Rani Laxmi Bai Death
रानी लक्ष्मी बाई जब आयरिश की लड़ाई अंग्रेजों के खिलाफ लड़ रही थी तो उसने युद्ध में प्रुरुषो की पोशाक पहन रखी थी। ये लड़ाई 17 जून 1858 में लड़ी गई थी। हम पहले ही बता चुके हैं कि कालपी की लड़ाई हारने के बाद रानी लक्ष्मी बाई को तांत्या टोपे ने ग्वालियर का किला बचाने के लिए कहा था। लक्ष्मी बाई ने ग्वालियर के किले को बचाने के लिए पूर्व में मोर्चा संभाला हुआ था।
जब झाँसी की रानी इस युद्ध में भाग ले रही थे तो उन्होंने एक नए घोड़े का इस्तेमाल किया था जिसका नाम राजरत्न था। घोड़े के नए होने के कारण यह घोडा युद्ध की रणनीति से परिचित नहीं था। जब झाँसी की रानी एक नहर को पर कर रही थी थी नहर घोड़े ने नहर को पर करने में असमर्थता दिखाई। धोड़ा पार नहीं होने की स्थिति में उन्होंने ये समझ लिया अब युद्ध करना ही पड़ेगा।
झाँसी की रानी घोड़े से फिसलकर विचलित और घायल हो चुकी थी। वह वीरता से युद्ध करती रही ऐसा भी माना जाता है कि कुछ पल के लिए तो अंग्रेज अधिकारी उन्हें पहचान नहीं सके। बाद में उन्हें पहचान लिया गया। उन्हें ग्वालियर के फूलबाग क्षेत्र में ले लिया गया जहां उनके सेनापति ने उन्हें गंगा जल का सेवन करवाया पर बुरी तरह से जख्मी लक्ष्मीबाई की मोत हो गई। जाते जाते उन्होंने अपने सहयोगियों से ये कहा हमारे शरीर को अंग्रेजी सरकार या अंग्रेजी अधिकारी का हाथ नहीं लगना चाहिए।
उनकी मौत के बाद उनके पिता को गिरफ्दार कर लिया गया और उन्हें फांसी की सजा दी गई। 58 वर्षीय झाँसी की रानी अपने बेटे दामोदर राव को कभी भी झांसी का उत्तराधिकारी नहीं बना सकी पर मई 28, 1906 मृत्यु को प्राप्त होने से पहले इतिहास के पन्नों में अपना नाम जरूर लिख गई। ऐसी वीर, वीरांगना को हम याद रखेंगे।
निष्कर्ष :- रानी लक्ष्मीबाई का नाम आज भी महान क्रंतिकारियों में लिया जाता है ये हिंदी पुकार में हम "झांसी की रानी लक्ष्मीबाई जीवन परिचय और इतिहास" आर्टिकल से ये ही निष्कर्ष निकालते हैं कि इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता है कि उन्होने झाँसी के लिए युद्ध लड़ा, पर बड़ी बात ये हैं कि एक औरत होकर उन्होंने अपने होंसले को कभी भी हारने का मौका नहीं दिया।
जब देश आजादी के लिए लड़ाई लड़ रहा था और अंग्रेजों ने अपनी नीतियों से देश को अंदर से खोखला कर दिया था इसके बावजूद उन्होंने झाँसी के साथ -साथ देश की आजादी के लिए डट कर सामना किया जहां देश की आन और शान के लिए जरूरत पड़े आज की नारी को भी रानी लक्ष्मीबाई की तरह किसी भी बुराई के लिए लड़ने के लिए त्यार होना चाहिए।